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सहज समाधी

       सहज समाधी  अ द्वैतावस्था ही अंतिम अवस्था है, यही सभी अवस्थाओं की पृष्ठभूमि है जिसे  सहज समाधि  भी कहते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है, यहा कोई वृत्ति आए चाहे जाए, कोई भी अनुभव आए-जाए, यहां तक कि अनुभवकर्ता की भी कोई चिंता नहीं है बस होना मात्र है।       अस्तित्व बहुत सरल है जब की उसके मिथ्या रूप बहुत जटिल है और अनुभवकर्ता को जानना बुद्धि के परे हैं। जो केवल है उसको जानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयंसिद्ध है। वह ना ऐसा है, ना वैसा है जो सबसे सरल है, जो सबसे सहज है 'वह मैं हुँ' और यह अद्वैतावस्था मेरी ही अवस्था है जो कभी जाती नही, जो कभी टूट नहीं सकती, कितनी भी वृत्तियां आए, कितनी भी अवस्थाएं आए जाए जीव रहे ना रहे अस्तित्व तो रहेगा और हमेशा इस अनुभव क्रिया में रहेगा और यही सहज समाधि है।      यह अज्ञान है कि सहज समाधि की अवस्था में आया जा सकता है क्योंकि यह अवस्था पहले से है  सब कुछ पहले से ही एक है  इसको कुछ जोड़ तोड़ के बनाया नहीं जा सकता, आपको केवल आपका अज्ञान नष्ट करना पड़ेगा की अनुभव और अ...

गुरु का महत्त्व

अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में गुरु का महत्त्व इसलिए नहीं है कि वह मंत्र बताते है अथवा शुद्ध उच्चारण बताते है या देवी देवता का चुनाव कराते है या शक्तिपात करते है या पूजा पद्धति बताते है। गुरु अपनी अर्जित शक्ति शक्तिपात आदि से अथवा अपना अर्जित ज्ञान तो देते ही है पर गुरु का महत्त्व इसलिए होता है की वह सफलता को निश्चित करने के सूत्र देते है। वह अपने सारे अनुभव और तकनिकी से अवगत कराते है जिससे सफलता शीघ्र और निश्चित रूप से मिलती है।  गुरु को उनके गुरु से, उन्हें उनके गुरु से, उन्हें उनके गुरु से, इस क्रम में हजारों सालों के अनुभव, सफलता, असफलता के कारण, उनकी खोजें, वह तकनीक जिससे इन क्रमों में सफलता निश्चित और शीघ्र मिली, यह सब प्राप्त हुआ होता है इन सब तकनीकियों और ज्ञान के लिए गुरु का महत्त्व सर्वाधिक होता है। मंत्र और पद्धतियाँ तो किताबों में भी मिल जाती हैं। किन्तु तकनीक और अनुभव नहीं होते गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र भी जाग्रत और स्वयं सिद्ध होते है यही कारण है की किताबों से सफलता नहीं मिलती अगर थोड़ी बहुत मिल भी जाए तो कुछ थोडा सा पाने और खुद को श्रेष्ठ समझने में ही जीवन आयु समाप्...