आत्मज्ञान का महत्त्व और इसके बाद का जीवन
जब मानव अपने परिचय में कर्म और शरीर से सम्बंधित मेरा या मैं शब्द को संम्बोधन के लिए प्रयोग करता है। तभी ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से विचारों में आता है कि मैं कौन ? ये शरीर मेरा है, तो ये मेरा/ मैं कौन है, क्या है? बस इसी मैं के रहस्यों को जानने की उत्सुकता को शान्त करने के लिए आत्मज्ञान का महत्व है। हलांकि हमे आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के जटिल प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो हम हैं हीं, उसे जानने के लिए केवल हमें अपने मूल स्वरूप का चिंतन ही करना है। मूल स्वरूप से परिचित होने या कहे मूल स्वरूप में लौटने के लिए मात्र अपने अस्तित्व से मिलन की तीव्र उत्कंठा ही काफी है। परिणामस्वरूप निरंतर स्मरण, चिंतन बने रहने पर जीवन नाटक के किरदार के अभिनय की उत्सुकता चरण दर चरण कम हो जाती है। आत्मज्ञान की मुमुक्षा के माध्यम से शरीर रुपी यंत्र या कहे कि नाटकीय अभिनय के चोला के अंदर छिपा हुआ, "मैं" अभिनय का त्याग करने लगेगा। फिर जीवन नाटक में अभिनीत किरदार के संवाद के प्रति मौन होने लगेंगे। अर्थात संवाद करने की रूचि कम होती जायेगी। फिर अन्तर्मुखी मन मूल ...