आत्मज्ञान का महत्त्व और इसके बाद का जीवन
जब मानव अपने परिचय में कर्म और शरीर से सम्बंधित मेरा या मैं शब्द को संम्बोधन के लिए प्रयोग करता है। तभी ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से विचारों में आता है कि मैं कौन ? ये शरीर मेरा है, तो ये मेरा/ मैं कौन है, क्या है? बस इसी मैं के रहस्यों को जानने की उत्सुकता को शान्त करने के लिए आत्मज्ञान का महत्व है।
हलांकि हमे आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के जटिल प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो हम हैं हीं, उसे जानने के लिए केवल हमें अपने मूल स्वरूप का चिंतन ही करना है। मूल स्वरूप से परिचित होने या कहे मूल स्वरूप में लौटने के लिए मात्र अपने अस्तित्व से मिलन की तीव्र उत्कंठा ही काफी है। परिणामस्वरूप निरंतर स्मरण, चिंतन बने रहने पर जीवन नाटक के किरदार के अभिनय की उत्सुकता चरण दर चरण कम हो जाती है।
आत्मज्ञान की मुमुक्षा के माध्यम से शरीर रुपी यंत्र या कहे कि नाटकीय अभिनय के चोला के अंदर छिपा हुआ, "मैं" अभिनय का त्याग करने लगेगा।
फिर जीवन नाटक में अभिनीत किरदार के संवाद के प्रति मौन होने लगेंगे। अर्थात संवाद करने की रूचि कम होती जायेगी। फिर अन्तर्मुखी मन मूल रूप से मौन की भाषा समझने में विलीन होता जाएगा।
इस प्रकार अभिनय के प्रपंच लोभ, इर्ष्या, मोह -माया आदि का अभिनय केवल नाटक के पात्र के तौर पर करेंगे। अर्थात नाटक में किरदार की भूमिका में विलीन न होकर चेतन अवस्था में साक्षी भाव से नाटक में अपनी भूमिका निभायेंगे। अर्थात आप जब चाहे जीवन नाटक के पात्र का चोला उतारकर अपने आनंदमय प्रेमस्वरूप में स्थिर रहने में समर्थ हो जायेंगे।
फलस्वरूप सच्चिदानंद (सत + चित +आनंद)/ परमात्मा के गुणों की अनुभूति का साक्षात्कार होने लगेगा, वस्तुतः यही प्रत्येक जीव का मोल स्वरूप है। आप शरीर रुपी यंत्र को अपनि उपयोगिता के अनुसार साधने में सक्षम हो जायेंगे।
यंत्र (शरीर) के लिए आवश्यक औज़ार भावनाएं, वचन, संवेदना आदि का उपयोग पूर्ण होश में साक्षी भाव से कर सकेंगे। परिणामस्वरूप इन औजारों से आहत होने से बचे रहेंगे। जिससे आपके व्यवहार में निम्न बदलाव स्वभाविक रूप से आ जायेगा -
मन, वचन और कर्म में एकत्व की स्थिति होगी।
साक्षीभाव में घटनाएँ घटित होंगी।
आप जीवन नाटक के पात्र के तौर पर ही अभिनय करेंगे।
अभिनय के प्रपंच राग -द्वेष, सुख -दुःख आदि भावनाओं का आपके चित्त की आनंदमय स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
ये ठीक वैसा ही है जैसे कलाकार नाटक मंचन में किसी अन्य नाम से किरदार के अनुसार वेश -भूषा धारण करके किरदार निभाते हैं। फिर वेश -भूषा और किरदार का नाम त्याग कर वापस अपने नाम और दिनचर्या में लौट आते हैं।
धन्यवाद 🙏🏻
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें