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ज्ञान में ध्यान

नमस्ते, ध्यान बड़ा प्राकृतिक है,  चित्त की प्राकृतिक गतिविधियों का परिणाम  ध्यान है, जहा सक्रियता होती है वह अनुभव छनकर हमें मिलता है और उसीको ध्यान कहते है। ध्यान का सबसे अच्छा उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में है जैसे ज्ञान मार्ग पर ज्ञान प्राप्त करने की, ज्ञान में रहने की  श्रवण, मनन, निदिध्यासन  यह विधि है और इसमें : श्रवण के लिए ध्यान चाहिए, सभी वृत्तियोंपर पर नियंत्रण चाहिए। मनन के लिए भी एक ही विषय पर लंबे समय तक ध्यान देना बहुत आवश्यक है। निदिध्यासन में भी आपका ध्यान ज्ञान पर होना, साक्षी भाव में होना, मैं कौन हूँ यह याद रखना, स्मरण रखना आवश्यक है। यदि शरीर में कही पीड़ा है, कही चोट लगी है तो आप पाएंगे की आप का सारा ध्यान वही पर है क्योंकि शरीर की परत सक्रीय हो गई है और सबसे आवश्यक कार्य अब वही है उसीसे संबंधित कर्म हो रहे है तो जहा सक्रियता है वहा ध्यान है,  ध्यान स्वतः सक्रीय परत पर जाता है। ध्यान कोई विशेष क्रिया नहीं है , ध्यान एक खिड़की की तरह है, जहा पर भी सक्रीय परत होती है वह खिड़की वहा पर सरक जाती है और बाकी अनुभव थोड़ेसे क्षीण हो जाते है। जहा बलशाली वृत्...

गुणों से ज्ञान और ज्ञान से गुणों का विकास

नमस्ते, गुरुओं की कमी नहीं है शिष्यों की कमी नहीं है गुणों की कमी होती है इसलिए साधकों को गुणों को विकसित करना चाहिए ।  कई जन्मों के विकास के बाद कोई भी साधक ज्ञानमार्ग के लिए तैयार होता है।  जिनमें अवगुण है वह समाज में ही रहते हैं और जो गुणवान है वह ज्ञान रस पीता है, ज्ञान अमृत पीता है इसलिए गुणों की प्राप्ति ही साधक के लिए उपलक्ष्य बन जाता है। जिन्होंने गुणों को लक्ष्य बनाया है उनके लिए ज्ञान तो छोटी चीज है उनके अज्ञान का नाश तुरंत हो जाएगा। गुणों को विकसित करना ही ज्ञान मार्ग की चाबी है। इन गुणों से संसार भी अच्छा हो जाएगा। साधक में इन गुणों का विकास होने पर ही सही अर्थों में ज्ञानमार्ग शुरू होता है और इसलिए  ज्ञानमार्ग पर चलने के लिए साधक में कुछ विशेष गुण होने चाहिए। इसमें सबसे बड़ा गुण है जिज्ञासा यानी ज्ञान की तीव्र इच्छा और दूसरा है मुमुक्षत्व यानी मुक्ति की तीव्र इच्छा ।  इसके अलावा पारंपरिक रूप से साधक के 6 और गुण बताए गए हैं जो कि षट सम्पत्ति कहलाते हैं जो है शम, दम, उपरती, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान। शम : इसमें स्थिरता और गुरु द्वार...

समर्पण

नमस्ते, समर्पण में इतना ही भाव रखना है, इतना ही स्मरण रखना है के व्यक्ति नहीं है, अहम् भाव नहीं है यह तो मिथ्या है और जो में-में, मेरा-मेरा करता था वह पशुवृत्ति में लीन था उसका केवल आवश्यकता होने पर ही उपयोग करना क्योंकि अहम् भाव पूरी तरह त्यागा नहीं जा सकता तो उत्तरजीविता के लिए काम आता है लेकिन जब आवश्यक नहीं है तब उसको बाजू में रखना और उसका उपयोग ना करना आवश्यक है। साधक को शंका का त्याग करके संपूर्ण विश्वास से स्वयं के प्रगति के लिए और स्वयं के विकास के लिए ज्ञान के प्रति, मार्ग के प्रति, गुरु के प्रति, समर्पण होना आवश्यक है। व्यक्ति का समर्पण है, अहम् का समर्पण ही समर्पण है। यह व्यक्ति तो बोलेगा की मेरी यह इच्छा पूरी नहीं हुई मेरी वह इच्छा पूरी नहीं हुई और कर्म करेगा जैसा भी कर्म हो वह करेगा, जैसे की अज्ञान में कर्म होते आए है तो उसकी जगह ज्ञान में स्थित रहना है और देखना की ना अहम् मैं हूँ और जिन इच्छाओ को अपना कहते है न वह मेरी है और यदि कोई इच्छा है और उसका साधन भी है पूर्ण करने का तो अपनेआप ही पूर्ण होती है यदि साधन नहीं है तो कभी न कभी पूरी होगी इसीको संतोषभाव कहते है। संतोषी ...