गुणों से ज्ञान और ज्ञान से गुणों का विकास
नमस्ते,
गुरुओं की कमी नहीं है शिष्यों की कमी नहीं है गुणों की कमी होती है इसलिए साधकों को गुणों को विकसित करना चाहिए। कई जन्मों के विकास के बाद कोई भी साधक ज्ञानमार्ग के लिए तैयार होता है। जिनमें अवगुण है वह समाज में ही रहते हैं और जो गुणवान है वह ज्ञान रस पीता है, ज्ञान अमृत पीता है इसलिए गुणों की प्राप्ति ही साधक के लिए उपलक्ष्य बन जाता है। जिन्होंने गुणों को लक्ष्य बनाया है उनके लिए ज्ञान तो छोटी चीज है उनके अज्ञान का नाश तुरंत हो जाएगा। गुणों को विकसित करना ही ज्ञान मार्ग की चाबी है। इन गुणों से संसार भी अच्छा हो जाएगा। साधक में इन गुणों का विकास होने पर ही सही अर्थों में ज्ञानमार्ग शुरू होता है और इसलिए ज्ञानमार्ग पर चलने के लिए साधक में कुछ विशेष गुण होने चाहिए। इसमें सबसे बड़ा गुण है जिज्ञासा यानी ज्ञान की तीव्र इच्छा और दूसरा है मुमुक्षत्व यानी मुक्ति की तीव्र इच्छा। इसके अलावा पारंपरिक रूप से साधक के 6 और गुण बताए गए हैं जो कि षट सम्पत्ति कहलाते हैं जो है शम, दम, उपरती, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान।
शम : इसमें स्थिरता और गुरु द्वारा बताए गए सभी उपदेशों को आत्मसात करना और उस पर मनन करना।
दम : दम यानी इंद्रियों पर विजय पाना।
उपरती: इसमें संसार नीरस लगता है और साधक संसार से अलिप्त होने लगता है।
तितिक्षा : इसका अर्थ है सहनशक्ति, चाहे कैसी भी परिस्थिति आए इस मार्ग पर अडिग रहता है हार नहीं मानता है।
श्रद्धा : गुरु पर विश्वास और मार्ग पर विश्वास होता है।
समाधान : उतावलापन ना होना प्रतियोगी ना होना लेकिन संतुष्ट स्वभाव से प्रयासरत होना।
ज्ञान मार्ग के साधक में कुछ अन्य गुण भी आवश्यक है जैसे की :
साधक में तेज बुद्धि का होना आवश्यक है I
तर्क ज्ञानमार्ग का साधन है और साधक में पहचानने की तार्किक क्षमता होनी चाहिए की क्या भावना आधारित है और क्या तर्क आधारित है I
साधक में बुद्धि के साथ विवेक का होना भी आवश्यक है I विवेकी यानि सही और गलत की पहचान होना आवश्यक है I
ग्रहणशीलता का सीधा संबंध अहंकार से है I ग्रहणशीलता अर्थात बुद्धि और तर्क से समझना, आकलन और विश्लेषण का प्रयास करना I
साधक में समालोचनात्मक बुद्धि होनी चाहिए यानि सोच समझ के ज्ञान ग्रहण करना और अंधश्रद्धा का त्याग करना आवश्यक है I
गुणों के विकास के लिए साधक को यह समझना होगा कि कुछ गुण तो निहित है, जन्म से है जैसे की समर्पण, श्रद्धा, तितिक्षा, मुमुक्षत्व, जिज्ञासा, रुचि का होना इसलिए यह समझना होगा कि ज्ञान मार्ग में जो भी आता है वह कृपा से आता है प्रयास से नहीं इसलिए अगर वो ज्ञानमार्ग में विफल हो रहा है तो साधक को स्वीकारभाव में आना चाहिए और दूसरा मार्ग चुन लेना चाहिए। लेकिन कुछ गुण विकसित किए जा सकते हैं जैसे की भाषा, व्यसनों का त्याग, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, आर्थिक स्वतंत्रता आदि
साधक के गुणों से ही निर्धारित होता है कि वह ज्ञानाधिकारी हो सकता है या नहीं क्योंकि सभी शिक्षक सभी गुरु योग्य छात्र को पसंद करते हैं।
गुणों से ज्ञान बढ़ता है लेकिन गुणों का विकास करने में समय लगता है ज्ञान में समय नहीं लगताI गुणो से ज्ञान और ज्ञान से गुण बढ़ते हैं I इस तरह से दोनों एक दूसरे को बढ़ाते हैं, परस्पर वृद्धि होती है।
धन्यवाद 🙏🏻
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