समर्पण

नमस्ते,

समर्पण में इतना ही भाव रखना है, इतना ही स्मरण रखना है के व्यक्ति नहीं है, अहम् भाव नहीं है यह तो मिथ्या है और जो में-में, मेरा-मेरा करता था वह पशुवृत्ति में लीन था उसका केवल आवश्यकता होने पर ही उपयोग करना क्योंकि अहम् भाव पूरी तरह त्यागा नहीं जा सकता तो उत्तरजीविता के लिए काम आता है लेकिन जब आवश्यक नहीं है तब उसको बाजू में रखना और उसका उपयोग ना करना आवश्यक है। साधक को शंका का त्याग करके संपूर्ण विश्वास से स्वयं के प्रगति के लिए और स्वयं के विकास के लिए ज्ञान के प्रति, मार्ग के प्रति, गुरु के प्रति, समर्पण होना आवश्यक है।

व्यक्ति का समर्पण है, अहम् का समर्पण ही समर्पण है। यह व्यक्ति तो बोलेगा की मेरी यह इच्छा पूरी नहीं हुई मेरी वह इच्छा पूरी नहीं हुई और कर्म करेगा जैसा भी कर्म हो वह करेगा, जैसे की अज्ञान में कर्म होते आए है तो उसकी जगह ज्ञान में स्थित रहना है और देखना की ना अहम् मैं हूँ और जिन इच्छाओ को अपना कहते है न वह मेरी है और यदि कोई इच्छा है और उसका साधन भी है पूर्ण करने का तो अपनेआप ही पूर्ण होती है यदि साधन नहीं है तो कभी न कभी पूरी होगी इसीको संतोषभाव कहते है। संतोषी जीवन जीना न के बैचेनी में, चिंता में भागदौड़ में, दुःख में क्योंकि ऐसा जीवन ही दुःख का कारण है।

सुख मिले तो सुख में संतोष रखना, दुःख मिले तो विचलित ना होना क्योंकि दुःख और सुख दोनों मिथ्या है और जब तक शरीर है तब तक द्वैत में ही रहना है यह याद रखना, यह स्मरण रखना इसीको ही स्वीकारभाव कहते है। जो व्यक्ति के वश में नहीं है वह नहीं हो सकता इसलिये जो है उसको स्वीकार करते हुए प्रगति करते जाना, विकास करते जाना।

किसी से भी आसक्ति नहीं रखना और यह जान लेना कि सभी मेरे ही रूप है, सभी का तत्व एक ही है। जो रहना चाहेगा वो रहेगा और जिसको आप पसंद नहीं है वह चले जाएंगे। कभी कुछ मांगना नहीं, कभी कुछ अपेक्षा नहीं रखना यह प्रेमभाव है जो साक्षी भाव में रहकर अपने आप आ जाता है क्योंकि अपना तत्व देख लेने के बाद यह देख लिया जाता है की सभी का तत्व वही है, यह भी देख लिया जाता है कि व्यक्ति तो है नहीं तो इसके लिए कार्य करके अधिक लाभ नहीं है जितना आवश्यक है उतना ही करना चाहिए।

स्वार्थ हमेशा दुख देता है, हमेशा पतन करवाता है इसलिए सबको साथ लेकर चलना ही बुद्धिमानी है। आपको जो ज्ञान हुआ है उसको सबको देना सबको बांटना सेवा करना यह सेवाभाव है।

अपनी अवस्था के लिए दूसरों को दोषी ना ठहराना और यदि दूसरे दुख दे रहे हैं है तो उसका भी कारण मैं ही हुँ, मेरे ही कर्मों का फल है, मेरे ही आसक्ति का फल है यह जानकर सभी के लिए क्षमाभाव रखना है।

सबके साथ मिल-जुल कर रहना, ना कि यह कहना कि तुम अज्ञानी हो, तुम नीच हो, तुम मूर्ख हो, किसी का तिरस्कार न करना, सबको समान समझना यह मैत्रीभाव है।

बुद्धि का समर्पण जिसमें की जाना जाता है कि बुद्धि के वश में जितना था उतना जान लिया गया है, अब बुद्धि शुद्ध है और जो बुद्धि के वश में नहीं है वह नहीं जाना जा सकता वह हुआ जा सकता है जो मैं पहले से ही हूं यह अज्ञेयवाद है। जहां बुद्धि नहीं चल सकती वहा उसको ना चलाना क्योंकि बुद्धि तो कल्पना कर ही लेगी और यह अज्ञान है, जहा ज्ञान नहीं हो सकता वहा मान्यताएं गढ़ लेगी, तो इससे बचने के लिए अज्ञेयता को स्वीकार कर लेना उसके सामने समर्पण करना आवश्यक है।

धन्यवाद 🙏🏻

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छा लगा। सभी विचारे जो प्रस्तुत किये गए वे काफी सोचनीय और प्रेरक है।👍

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