मंत्र, मोक्ष, प्रारब्ध, संचित कर्म और साक्षी भाव
मंत्र जप का मोक्ष से सीधा संबंध नहीं है कि इस या उस के मंत्र जप से मोक्ष मिलेगा। सिद्ध गुरु से प्राप्त कोई भी, किसी भी देवी देवता का मंत्र ध्यान साधना में सहायक हो सकता है । मंत्र जप चित्त शुद्धि व एकाग्रता व ध्यान में सहायक होते हैं। ध्यान में उतर जाने पर मंत्र का कार्य लगभग पूरा हो जाता है।
मंत्र ध्यान से आगे नहीं जाते क्योंकि कि परम सत्य तो नाम और रूप से परे है इसलिए मन के साथ साथ बुद्धि और समस्त इन्द्रियाँ उसे नहीं जान सकती…
मोक्ष मिलना साधक की प्रकृति व इछाओ निर्भर है। यह बात समझना बहुत महत्वपूर्ण है की केवल मंत्र जप पर्याप्त नहीं साधक को अपनी रजस तमस वृत्ति से परे और इच्छा आकांक्षा से परे भी जाना होता है। मंत्र जप व तपस्या तो राक्षस भी करते थे पर वे अपनी तामसिक वॄत्ति के कारण अत्याचारी शक्ति ही मंत्र जप के बदले में पाते थे।
राजा भरत ने तो राजपाट त्याग कर जंगल की राह ली व चित्तवृत्ति भी शुद्ध होगई पर एक मृग शावक की देखभाल में चित्त रम जाने से एक जन्म और लेना पड़ा -मृग के रूप में ही और जब तक पूर्व जन्म के समस्त संचित कर्म अर्थात जिनका फल नहीं मिलने से वे फिक्स्ड डिपॉजिट की तरह कर्म खाते में जमा हैं वे समाप्त नहीं होते तब तक मोक्ष को समझ नहीं सकते।
अब प्रश्न यह आता है की क्या मन्त्र जप से कर्म बीज नाश हो सकते हैं? ऐसे संचित कर्म जो प्रारब्ध नहीं बने हैं उन्हें निष्काम कर्म की भूमि पर स्थित हो कर साक्षी भाव विकसित करके उनसे अलग हुआ जा सकता है और संचित में से जो कर्म प्रारब्ध बन गए हैं वे प्रारब्ध कर्म तो भोगने ही होते हैं यद्यपि साक्षी भाव से उनकी तीव्रता कम हो सकती है। यहाँ तक कि जिन्हें इसी जन्म में आत्म साक्षात्कार हो गया है वे भी इस जन्म के आयु और भोग भोगते हैं ऐसे मोक्ष अधिकारी को जीवन मुक्त कहा गया है अर्थात उनकी इसी जीवन में मुक्ति होगई है पर वे प्रारब्ध कर्म काट रहे हैं।
मोक्ष के विविध अर्थ हो सकते हैं आत्म साक्षात्कार, स्वरूप स्थिति, इत्यादि। पुष्प की तरह पूरी तरह खिल जाना या कहें कि ऐसी पूर्णत्व की प्राप्ति ही मोक्ष है।अपनी निजी चेतना का परमचेतना तक विस्तार ही मोक्ष है। जो वह है वही मैं भी हूँ यही मोक्ष है।
धन्यवाद
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