संदेश

कृपा ही केवलम

  संतो की एक सभा चल रही थी... किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहा रखवा दिया ताकि संत जन जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सके.. सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसी तरह के विचार आने लगे.. वह सोचने लगा - अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है? एक तो इसमें किसी तालाब या कुए का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब संतो के काम आएगा ! इस घड़े को संतो का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा, ऐसी किस्मत किसी किसी की ही होती है.... घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा - बंधू मैं तो मिटटी के रूप में पड़ा सिर्फ मिटटी का ढेर था..... किसी काम का नहीं था.. कभी ऐसा नहीं लगता था की भगवान ने हमारे साथ न्याय किया है... फिर एक दन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मारकर हमको खोदा और मुझे बोरी में भर कर गधे पर लाध कर अपने घर ले गया.. वहा ले जाकर हमको उसने रौंदा, फिर पानी डालकर गुंथा, चाकपर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार मार कर बराबर किया, बात यही नहीं रुकी उसके बाद आवे के आग में झोक दिया जलने को... इतने कष्ट सेहन कर बहार निकला तो गधे पर लाधकर उसने मुझे बाजा...

आत्मज्ञान का महत्त्व और इसके बाद का जीवन

  जब मानव अपने परिचय में कर्म और शरीर से सम्बंधित  मेरा या मैं शब्द  को संम्बोधन के लिए प्रयोग करता है। तभी ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से विचारों में आता है कि  मैं कौन ?  ये शरीर मेरा है, तो ये मेरा/ मैं कौन है, क्या है? बस इसी मैं के रहस्यों को जानने की उत्सुकता को शान्त करने के लिए आत्मज्ञान का महत्व है। हलांकि हमे आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के जटिल प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो हम हैं हीं, उसे जानने के लिए केवल हमें अपने मूल स्वरूप का चिंतन ही करना है। मूल स्वरूप से परिचित होने या कहे मूल स्वरूप में लौटने के लिए मात्र अपने अस्तित्व से मिलन की तीव्र उत्कंठा ही काफी है। परिणामस्वरूप निरंतर स्मरण, चिंतन बने रहने पर जीवन नाटक के किरदार के अभिनय की उत्सुकता चरण दर चरण कम हो जाती है। आत्मज्ञान की मुमुक्षा के माध्यम से शरीर रुपी यंत्र या कहे कि नाटकीय अभिनय के चोला के अंदर छिपा हुआ, "मैं" अभिनय का त्याग करने लगेगा। फिर जीवन नाटक में अभिनीत किरदार के संवाद के प्रति मौन होने लगेंगे। अर्थात संवाद करने की रूचि कम होती जायेगी। फिर अन्तर्मुखी मन मूल ...

सहज समाधी

       सहज समाधी  अ द्वैतावस्था ही अंतिम अवस्था है, यही सभी अवस्थाओं की पृष्ठभूमि है जिसे  सहज समाधि  भी कहते हैं, इसमें कोई भेद नहीं है, यहा कोई वृत्ति आए चाहे जाए, कोई भी अनुभव आए-जाए, यहां तक कि अनुभवकर्ता की भी कोई चिंता नहीं है बस होना मात्र है।       अस्तित्व बहुत सरल है जब की उसके मिथ्या रूप बहुत जटिल है और अनुभवकर्ता को जानना बुद्धि के परे हैं। जो केवल है उसको जानने के लिए बुद्धि की आवश्यकता नहीं है, वह स्वयंसिद्ध है। वह ना ऐसा है, ना वैसा है जो सबसे सरल है, जो सबसे सहज है 'वह मैं हुँ' और यह अद्वैतावस्था मेरी ही अवस्था है जो कभी जाती नही, जो कभी टूट नहीं सकती, कितनी भी वृत्तियां आए, कितनी भी अवस्थाएं आए जाए जीव रहे ना रहे अस्तित्व तो रहेगा और हमेशा इस अनुभव क्रिया में रहेगा और यही सहज समाधि है।      यह अज्ञान है कि सहज समाधि की अवस्था में आया जा सकता है क्योंकि यह अवस्था पहले से है  सब कुछ पहले से ही एक है  इसको कुछ जोड़ तोड़ के बनाया नहीं जा सकता, आपको केवल आपका अज्ञान नष्ट करना पड़ेगा की अनुभव और अ...

गुरु का महत्त्व

अध्यात्म और साधना के क्षेत्र में गुरु का महत्त्व इसलिए नहीं है कि वह मंत्र बताते है अथवा शुद्ध उच्चारण बताते है या देवी देवता का चुनाव कराते है या शक्तिपात करते है या पूजा पद्धति बताते है। गुरु अपनी अर्जित शक्ति शक्तिपात आदि से अथवा अपना अर्जित ज्ञान तो देते ही है पर गुरु का महत्त्व इसलिए होता है की वह सफलता को निश्चित करने के सूत्र देते है। वह अपने सारे अनुभव और तकनिकी से अवगत कराते है जिससे सफलता शीघ्र और निश्चित रूप से मिलती है।  गुरु को उनके गुरु से, उन्हें उनके गुरु से, उन्हें उनके गुरु से, इस क्रम में हजारों सालों के अनुभव, सफलता, असफलता के कारण, उनकी खोजें, वह तकनीक जिससे इन क्रमों में सफलता निश्चित और शीघ्र मिली, यह सब प्राप्त हुआ होता है इन सब तकनीकियों और ज्ञान के लिए गुरु का महत्त्व सर्वाधिक होता है। मंत्र और पद्धतियाँ तो किताबों में भी मिल जाती हैं। किन्तु तकनीक और अनुभव नहीं होते गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र भी जाग्रत और स्वयं सिद्ध होते है यही कारण है की किताबों से सफलता नहीं मिलती अगर थोड़ी बहुत मिल भी जाए तो कुछ थोडा सा पाने और खुद को श्रेष्ठ समझने में ही जीवन आयु समाप्...

मंत्र, मोक्ष, प्रारब्ध, संचित कर्म और साक्षी भाव

मंत्र जप का मोक्ष से सीधा संबंध नहीं है कि इस या उस के मंत्र जप से मोक्ष मिलेगा।  सिद्ध गुरु से प्राप्त कोई भी, किसी भी देवी देवता का मंत्र ध्यान साधना में सहायक हो सकता है ।  मंत्र जप चित्त शुद्धि व एकाग्रता व ध्यान में सहायक होते हैं। ध्यान में उतर जाने पर मंत्र का कार्य लगभग पूरा हो जाता है।  मंत्र ध्यान से आगे नहीं जाते क्योंकि कि परम सत्य तो नाम और रूप से परे है इसलिए  मन के साथ साथ बुद्धि और समस्त इन्द्रियाँ उसे नहीं जान सकती… मोक्ष मिलना साधक की प्रकृति व इछाओ निर्भर है।  यह बात समझना बहुत महत्वपूर्ण है की   केवल  मंत्र जप पर्याप्त नहीं साधक को अपनी रजस तमस वृत्ति से परे और इच्छा  आकांक्षा से परे भी जाना होता है।  मंत्र  जप व तपस्या तो राक्षस भी करते थे पर वे अपनी तामसिक वॄत्ति के कारण अत्याचारी शक्ति ही  मंत्र  जप के बदले में पाते थे । राजा भरत ने तो राजपाट त्याग कर जंगल की राह ली व चित्तवृत्ति भी शुद्ध होगई पर एक मृग शावक की देखभाल में चित्त रम जाने से एक जन्म और लेना पड़ा -मृग के रूप में ही और  जब तक पूर...

स्वीकारभाव

जहा आप पहुंच जाते हो, मन वहा से हट जाता है, मन आगे दौड़ने लगता है, कही और जाता है, मन सदा आपसे आगे दौड़ता रहता है, आप जहा हो वहा कभी नहीं होता  । यदि आप लोकप्रिय नहीं हैं, तो आप प्रसिद्धि चाहते हैं।  यदि आप लोकप्रिय हैं, तो आप गोपनीयता चाहते हैं।  यदि आप गरीब हैं तो आपको पैसा चाहिए।  यदि आप अमीर हैं तो आपको एहसास होता है कि अभी भी आपके जीवन में खुशियों की कमी है। आप बस एक सादा जीवन जीना चाहते हैं।  यदि आप बुद्धिमान हैं तो जीवन तनावपूर्ण हो जाता है क्योंकि आप किसी भी चीज को नजरअंदाज नहीं कर पाते हैं।  यदि आप अनाड़ी हैं, तो आप अपने अज्ञानी व्यवहार के कारण गलतियाँ करते हैं।  यदि आप अकेले हैं, तो आप एक रिश्ता चाहते हैं।  यदि आप रिश्ते में हैं, तो आप कुछ जगह और स्वतंत्रता चाहते हैं। यदि आप एक शक्तिशाली व्यक्ति नहीं हैं, तो आप महसूस करते हैं कि लोग आप पर हावी हैं।  यदि आप एक शक्तिशाली व्यक्ति हैं, तो आपको एहसास होता है कि आपको सभी जिम्मेदारियों को संभालना है। और यह पहचानना मुश्किल है कि कौन वास्तव में आपसे प्यार करता है और कौन नाटक कर रहा है। जीवन कभ...

सुकून

अभी कुछ दिनो से घर मे बहुत ज़्यादा उदास माहौल था। टेंशन ही टेंशन। टेंशन भी ऐसी कि ना भूख लगे ना मन लगे। बस चमत्कार की उम्मीद में। एक समय आता है जब मन नहीं लगता, डिप्रेशन जैसी भावना आ जाती है। और जिस बात की टेंशन होती है, वो बात कहीं ना कहीं मन स्वीकार कर ही चुका होता है। लेकिन कहते है ना कि हर चीज़ की एक हद होती है, इसी तरह शायद टेंशन की भी यही हद होती है। जब ऐसी परिस्थिति हो, तब ख़ुश कैसे रहे? ख़ुश रहना तो दूर, ख़ुश रहने की सोचें भी कैसे? ख़ूब समझाया मन को, कि क्या फ़ायदा हो रहा है इतनी परेशानी लेने का? उल्टा, अपनी ही मानसिक व शारिरिक स्थिति ख़राब हो रही है। फ़िर यूट्यूब देखने बैठे, कोई लाभ नहीं। हँसी-मज़ाक की फ़िल्म देखी, कोई लाभ नहीं। और भी बहुत सारी चीजें, जिनसे ख़ुशी मिल सकती थी, लेकिन कोई लाभ नहीं। फ़िर फ़ोन किताबें और टीवी का रिमोट एक तरफ़ रखा और खाली बैठें। मतलब, एकदम खाली। और दिमाग से बोला, "अक्षता तू सोच, तुझे क्या सोचना है और कितना सोचना है। सोच, कि ये हुआ तो वो होगा और वो हुआ तो ये होगा। कोई तुझे नहीं रोकने वाला।" दिमाग़ ने सोचना शुरू किया। सोचते-सोचते ख़ुद ही बोर हो गया और सोलुशन...